मनुष्य, शैतान के प्रभाव के बंधन में जकड़ा हुआ, अंधकार के प्रभाव के आवरण में रह रहा है जिसमें से बच निकलने का मार्ग नहीं हैं। और मनुष्य का स्वभाव, शैतान के द्वारा संसाधित किए जाने के पश्चात्, उत्तरोत्तर भ्रष्ट होता जा रहा है। कोई कह सकता है कि
परमेश्वर को वास्तव में प्यार करने में असमर्थ, मनुष्य, सदैव अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में रहा है। यह तो ऐसा है, यदि मनुष्य परमेश्वर को प्यार करने की इच्छा करता है, तो उसे स्वयं को सही मानना, स्वयं को महत्त्व देना, अहंकार, मिथ्याभिमान तथा इसी तरह की चीजों से वंचित अवश्य कर देना चाहिए जो सभी शैतान के स्वभाव से संबंधित हैं। अन्यथा, मनुष्य का प्रेम अशुद्ध प्रेम, शैतान का प्रेम है, और ऐसा प्रेम है जो परमेश्वर का अनुमोदन सर्वथा प्राप्त नहीं कर सकता है।
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